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‘गंभीर मुद्दा, लेकिन फैसला संसद को करना होगा’, ट्रांसजेंडर अधिकारों को लेकर दिल्ली HC ने केंद्र
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‘गंभीर मुद्दा, लेकिन फैसला संसद को करना होगा’, ट्रांसजेंडर अधिकारों को लेकर दिल्ली HC ने केंद्र

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दिल्ली हाई कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार से जवाब मांगा है, जिसमें ट्रांसजेंडर महिलाओं और ट्रांसजेंडर बच्चों को महिलाओं और बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों के दायरे में शामिल करने की मांग की गई है. यह मामला भारतीय न्याय संहिता 2023 के उस अध्याय से जुड़ा है, जो महिलाओं और बच्चों से संबंधित यौन अपराधों को परिभाषित करता है.

हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस डी. के. उपाध्याय और जस्टिस तुषार राव गेडेला की बेंच ने याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया और मामले की अगली सुनवाई दिसंबर में तय की. अदालत ने वरिष्ठ अधिवक्ता एन. हरिहरन को एमिकस क्यूरी भी नियुक्त किया है, जो अदालत की मदद करेंगे.

डॉ. चंद्रेश जैन ने दिल्ली हाई कोर्ट में दायर की याचिका

दिल्ली हाई कोर्ट में यह याचिका डॉ. चंद्रेश जैन ने खुद दायर की है. कोर्ट में उन्होंने दलील दी कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 की धारा 18 में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के खिलाफ अपराधों के लिए सजा बहुत कम रखी गई है, छह महीने से दो साल तक की कैद और जुर्माना. उन्होंने अदालत से अनुरोध किया कि भारतीय न्याय संहिता के चैप्टर 5 की धाराओं में ट्रांसजेंडर महिलाओं और बच्चों को भी पीड़ित की परिभाषा में शामिल किया जाए.

कोर्ट ने कहा- संसद बना सकती है कानून 

हालांकि दिल्ली हाई कोर्ट ने प्रारंभिक तौर पर कहा कि यह मामला कानून बनाने और नीति तय करने के दायरे में आता है, जिसमें कोर्ट दखल नहीं दे सकती. चीफ जस्टिस ने कहा कि अगर किसी को लगता है कि किसी अपराध की सजा बढ़ाई जानी चाहिए तो यह अदालत का नहीं, बल्कि संसद का विषय है. अदालत कानून नहीं बना सकती, केवल उसकी व्याख्या कर सकती है. 

अदालत ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता ने एक गंभीर मुद्दा उठाया है, लेकिन इसे उचित मंच यानी सरकार या विधायिका के सामने उठाना होगा. अदालत ने कहा कि अगर इस मामले में बदलाव की जरूरत है तो संसद को परिभाषा क्लॉज में संशोधन करना होगा, ताकि कानून के तहत ट्रांसजेंडर महिलाओं और बच्चों को भी यौन अपराधों के पीड़ितों की तरह सुरक्षा मिल सके.

विधायिका कानून बना सकती है, न कि अदालत- कोर्ट

चीफ जस्टिस ने यह भी टिप्पणी की है कि यदि ऐसा संभव होता तो IPC की धारा 376 यानी रेप में भी पहले ही ट्रांसजेंडर महिलाओं को शामिल किया जा सकता था, लेकिन यह काम अदालत ने नहीं, बल्कि विधायिका ने 2019 में नए कानून के जरिए किया. 

कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता चाहे तो इस मुद्दे पर सरकार को औपचारिक प्रतिनिधित्व दे सकते हैं. वहीं मामले की गंभीरता को देखते हुए अदालत ने वरिष्ठ अधिवक्ता एन. हरिहरन को न्याय मित्र के रूप में नियुक्त कर आगे की सुनवाई में उनकी सहायता मांगी है.

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