मुगल बादशाह अकबर भारतीय इतिहास में एक ऐसे शासक के रूप में जाना जाता है, जिसने शासन को केवल धार्मिक दायरे तक सीमित नहीं रखा. उसका मानना था कि उसके साम्राज्य में इस्लामी और गैर-इस्लामी दोनों तरह की प्रजा शामिल है, इसलिए शासन की नीतियां ऐसी होनी चाहिए जो सभी को साथ लेकर चलें.
मुगल बादशाह अकबर ने अपने दृष्टिकोण से कई सुधार किए. धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देने का काम किया. विभिन्न धर्मों के विद्वानों के साथ संवाद स्थापित किया. दीन-ए-इलाही जैसी नीति की शुरुआत करना, जिसका उद्देश्य सभी धर्मों की अच्छी बातों को एक जगह समाहित करना था, लेकिन अकबर की इन उदार नीतियों ने कट्टरपंथी धार्मिक वर्ग को नाराज़ कर दिया. उन्हें लगता था कि अकबर इस्लामी सिद्धांतों से दूर जा रहा है और अपनी सत्ता को खलीफा से भी ऊपर स्थापित करना चाहता है.
पहला फतवा कब और क्यों जारी हुआ?
इतिहासकार एम. के. पुंडीर के अनुसार, अकबर के खिलाफ पहला फतवा 1580 में जौनपुर के काजी मुल्ला मुहम्मद यज़्दी ने जारी किया था. यह फतवा दरअसल अकबर की तरफ से 1579 में महजर की घोषणा के बाद आया था. महजर के जरिए अकबर ने खुद को धार्मिक मामलों का सर्वोच्च न्यायाधीश घोषित कर दिया था. इससे मुस्लिम विद्वानों और उलमा की धार्मिक सत्ता को चुनौती मिली. रूढ़िवादी वर्ग ने इसे इस्लामी सिद्धांतों से विचलन माना. इस फतवे में मुसलमानों से अकबर के खिलाफ विद्रोह करने का आह्वान किया गया.
इबादतखाना और धार्मिक बहसें
अकबर ने फतेहपुर सीकरी में इबादतखाना की स्थापना की, जहां विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों के विद्वान शामिल होकर विचार-विमर्श करते थे. शुरुआत में यह प्रयोग धार्मिक सहिष्णुता का प्रतीक माना गया, लेकिन समय के साथ यह बहसें टकराव और विवाद का रूप लेने लगीं. इस्लामी विद्वानों को लगा कि उनकी धार्मिक सत्ता कमजोर हो रही है. आखिरकार अकबर को इबादतखाना की बैठकें बंद करनी पड़ीं और उन्होंने धर्म को राजनीति से अलग रखने पर ज़ोर दिया.
अकबर और दीन-ए-इलाही
अकबर ने अपने शासनकाल में 1582 में दीन-ए-इलाही नामक एक नयी विचारधारा प्रस्तुत की. इसका मकसद अलग-अलग धर्मों की श्रेष्ठ शिक्षाओं को मिलाकर एक नैतिक आचार संहिता बनाना था. हालांकि यह आंदोलन कभी व्यापक स्तर पर लोकप्रिय नहीं हुआ, लेकिन इसने कट्टरपंथी वर्ग को और भड़का दिया.
अकबर के खिलाफ फतवों का असर
फतवों का उद्देश्य अकबर की सत्ता को चुनौती देना था, लेकिन अकबर ने कभी इन्हें स्वीकार नहीं किया. उसने अपनी सत्ता और जनता को सर्वोपरि रखा. परिणामस्वरूप, अकबर इतिहास में एक ऐसे सम्राट के रूप में जाना गया, जिसने धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक एकता को बढ़ावा दिया.
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